Tuesday, June 8, 2010

मैं डरता हूँ,......



मैं डरता हूँ,
कविता से....
शायद रूठ न जाए,
मेरी कोई हरकतों से.
अब तो इस डर ने,
डरने की सीमा पार कर गई है.
रात भर जागा रहता हूँ
ऐसा न हो की,
कविता...
रूठ कर चली जाए,
हमारे सोने के बाद.
कभी पलक झपकती भी
तो पुकारता हूँ,
कविता-कविता......
कई बार तो पूछ बैठा हूँ,
अपनी माँ से,
चली तो नहीं गई
कविता...?
कविता की डर ने
जुदा कर दिया हमें...
गीता से रामायण को
अब हाथ भी नहीं लगाता,
शायद..
नहीं चाहती कविता
बातें करूँ मैं,
किसी और से.
या फिर,
मेरी मुलाक़ात हो,
किसी और के साथ.
वह तो चाहती है
अपना बनाना
मुझे......
सिर्फ अपनाना,
कविता का सागर.

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